करील (Capporis Decidua)
प्रचलित नाम – करील
उपलब्ध स्थान – यह मालाबार, गुजरात, कच्छ आदि क्षेत्रों में पाया जाता है एवं यह भारत के विभिन्न जंगलों में भी होता है।
परिचय- करील के वृक्ष 20 फीट तक ऊंचे पाए जाते हैं। इसके तने की गोलाई 4 फीट से लेकर 8 फीट तक रहती है। इसकी छाल आधा इंच मोटी और गहरी भूरे रंग की होती है। इसके पुष्प गहरे लाल रंग के होते हैं। इसके पत्ते बारीक, पतले तथा हरे रंग के होते हैं। इसके फल कच्चे में हरे व पके में लाल हो जाते हैं। ये छोटे-छोटे रहते हैं। जेठ और आषाढ़ में इसके फल पक जाते हैं। इसके फलों को मारवाड़ी में ढालू कहा जाता है।
उपयोगिता एवं औषधीय गुण
आयुर्वेद – आयुर्वेदिक मत से करील कसैला, गर्म, चरपरा, अफारा, उत्पन्न करने वाला, रुचिकारक, भेदक, विषनाशक, विरेचक तथा कृमिनाशक रहता है। यह खाँसी और श्वास में लाभकारी है। व्रण, अर्बुद, वमन और बवासीर में इसका उपयोग लाभदायक है। यह ग्राही, मुख की दुर्गन्ध दूर करने वाला तथा पित्त और मूत्र सम्बन्धी पीड़ा को नाश करने वाला है। इसके फूल कफ और बात को खत्म करने वाले, हल्के और रुचिकारक होते हैं। इसके कच्चे फल कफ़ को खत्म करने वाले, सूजन में लाभदायक तथा पके फल कफ और पित्तनाशक हैं।
यूनानी मत- यूनानी मत के मुताबिक इसकी जड़ गर्म और खुश्क है। फल भी गर्म खुश्क है। किसी-किसी के मत से इसके सभी अंग गर्म और खुश्क होते हैं। फल, फूल, तना, पत्ते और जड़ ये सभी भिन्न-भिन्न रोगों में अपनी प्रभावी भूमिका निभाते हैं।
1. इसकी कोमल कोंपल तथा कोमल पत्तों को पीस कर टिकिया बनाकर कलाई पर बांधने से शरीर की थकावट मिटकर बुखार उतर जाता है।
2. इसकी कोंपल को मुख में रख कर चबाने से दांत की पीड़ा मिट जाती है।
3. इसकी सूखी कोपलों के चूर्ण को एक तोला की मात्रा में 3 माशे काली मिर्च के साथ सवेरे फंकी लेने से बढ़ी हुई तिल्ली से होने वाले रोग नष्ट हो जाते हैं।
4. रक्तार्श (खूनी बवासीर) में इसकी 1 तोला जड़ को 3 सेर जल में औटाकर जब आध सेर जल रह जाए, तब उसको दो हिस्से करके, दिन में दो बार सुबह और शाम पिला देना चाहिए। इस तरह 7 या 8 दिन तक प्रयोग करने से रक्तार्श मिट जाता है।
5. करील की लकड़ी की राख को, घी में मिलाकर चटाने से जोड़ों की पीड़ा मिट जाती है। कमर का दर्द भी इससे खत्म होता है।
6. करील की जड़ को पीसकर केशों की जड़ में मलने से बाल बढ़ते हैं।
7. जड़ की पिसी हुई औषधि आमवात, कटिवात, हिचकी, कफ तथा श्वास में लाभदायक है। यह कफ के दोष को मिटाती है। फोड़े-फुन्सी और बवासीर में लाभकारी है। शरीर के अंगों की सूजन को मिटाती है।
इसका फूल कफ और पेट के विकार को दूर करता है। यह फालिज (लकवा) और तिल्ली की बीमारी में लाभकारी है। यह दस्तों को रोकने वाला और कब्जियत उत्पन्न करने वाला है। इसका अचार सिरके में बनाकर खाने से वरम जाता रहता है। यह कफ को भी काटता है तथा जोड़ों के दर्द और क्षय की बीमारी में भी लाभकारी है।
8. करील का फल दिल को ताकत देता है। स्मृति और बुद्धि को बढ़ाता है, कामेन्द्रिय को शक्तिशाली करता इसकी कोंपल को समान भाग असबंद के साथ कूट-छानकर हर दिन 6 माशे बासी जल के साथ, मासिक धर्म के समय स्त्री को खिलाने से उसके संतान होना बंद हो जाती है और किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होती। इसी प्रकार इसी कोंपल को बिना पानी के पीसकर मलने से दाढ़ी और सिर के बाल उग जाते हैं।
9. जलोदर रोग के भीतर भी यह औषधि प्रभावशाली होती है।
10. यह औषधि गर्म मिजाज वालों के मेदे, गुर्दे और मस्तिष्क को नुकसान पहुँचाती है। इसके अधिक इस्तेमाल से खुजली पैदा होती है। इसके दर्प को समाप्त करने वाली औषधि अनीसून, उस्तखदूदूस, शहद और कुलंजन है। इसकी मात्रा चूर्ण के रूप में 10 माशा, काढ़े में डेढ़ तोले से 2 तोले तक तथा रस के रूप में 2 तोले से ढाई तोले तक है।
11. करील की कोमल शाखाएँ और पत्ते पीसकर फफोले पर लगाए जाते हैं। यह फोड़े-फुन्सी और प्रदाह पर प्रयोग में आती हैं। यह विष प्रतिरोधक है और जोड़ों के दर्द में भी लाभ पहुंचाती है। दाँतों की पीड़ा में भी इसका चूसना लाभदायक है
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