ब्रहामाण्डुकी (Indian Peniywort)
प्रचलित नाम – मंडूकपर्णी।
उपयोगी अंग – पंचांग, पत्ते एवं बीज।
परिचय – यह छोटा भूप्रसरी, गुल्म होती है। इसके कांड रक्तवर्णी तथा दुर्बल, पर्व से उत्पन्न होते मूल, पत्र गोल वृक्काकार, पत्ते किनारी दंतुर लम्बा पत्रवृंत ।
स्वाद- तीखा।
उपयोगिता एवं औषधीय गुण
उत्तेजक, अमीबा नाशक, कीटनाश, मेघावर्धक, रसायन, मूत्रल, रक्तशोधक, कुष्ठन व्रणरोपण। तिक्त कषाय पचने में लघु, शीत वीर्य, वयः स्थापन, हृदय, कफ । चर्मविकारों में, स्नायुतंत्रगत रोगों में, मेघावर्धक, कुष्ठरोग, क्षय रोग, पाण्डुरोग, औषधि लाल रक्तकणों तथा रक्त में प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है।
ब्रह्ममाण्डुकी का विशेष गुण विषाणुनाशक होता है, जिससे हर प्रकार के चर्मरोगों में इसके प्रयोग से फायदा होता है। श्वसन उत्तेजक, यकृत, संरक्षक, दाबह्रासी तथा व्रणरोपक। पत्रों का स्वरस बच्चों के आंव में इसके स्वरस को जीरक एवं मिश्री के साथ मिलाकर सेवन करने से फायदा होता है। बच्चों के शब्द उच्चारण एवं तुतलाकर बोलने से इसके पत्तों चबाकर खाने से फायदा होता है। पंचांग का चूर्ण दुग्ध में मिलाकर सेवन करने से स्मरण शक्ति बढ़ जाती है। पंचांग का स्वरस शहद में मिलाकर सेवन से अपस्मार तथा चेचक जैसे रोगों में फायदा होता हैं। पागलपन में मानसिक विकारों में (स्नायु तंत्रगत रोग) माण्डुकपर्णी के पत्तों का ताजा रस या पत्रों के चूर्ण का प्रयोग लाभकारी। प्रत्येक दिन इसका प्रयोग एक तोला पत्तों के रस में थोड़ा शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए। इससे अधिक मात्रा नहीं लेनी चाहिए। चर्म रोगों (कुष्ठरोग) में मेडागास्कर टापू के लोग कुष्ठ रोग के निवारण हेतु मण्डूकपर्णी का प्रयोग करते हैं। चूंकि कुष्ठ रोगों में अलावा सामान्य रोग में वृद्धि होती है, अतएव यह रसायन तथा मेधावर्धक भी है। व्रणरोपण के लिये इसके पत्रों का प्रयोग लाभकारी रहता है। औषधि के तौर पर ताजे पत्रों का ताजा रस या सूखे पत्रों का चूर्ण प्रयोग करना चाहिये। इसका क्वाथ या फांट नहीं बनाना चाहिये। इसके चूर्ण या पत्र स्वरस में मधु मिलाकर ही प्रयोग करना चाहिए। ज्यादा मात्रा में (एक तोला से अधिक) इसके सेवन से त्वचा लाल होकर खुजली हो जाती है। मानसिक रोगियों के लिये मण्डूकपर्णी के पत्रों का साग लाभदायक होता है। वयः स्थापन होने से यह वनौषधि शरीर तथा मन दोनों पर प्रभावकारी है। चरक ने इसको बुद्धिवर्धक रसायन बताया है। उच्च रक्तचाप (हाईब्लड प्रेशर) में मण्डूकपर्णी का चूर्ण 25 ग्राम, रस सिंदूर 12 ग्राम, चंद्रप्रभा 1-10 ग्राम इन सबकों घोंटकर इसका सेवन सुबह एवं शाम एक से डेड़ ग्राम करना चाहिए। अनिद्रा में मण्डूकपर्णी का चूर्ण 3 ग्राम, शंखपुष्पी तथा मण्डूकपर्णी का चूर्ण 3 ग्राम तथा डेढ़ ग्राम रात्रि को दूध के साथ सेवन करने से नींद आ जाती है। यह मानसिक तनाव को शांति प्रदान करता है। चिंता को दूर कर दिमाग को स्वस्थ बनाती है। मस्तिष्क की ताजगी के कारण नींद अच्छी आती है। रक्तचाप में अर्जुन की छाल का चूर्ण शंखपुष्पी और मण्डूकपर्णी इन सबका समान मात्रा में मिलाकर प्रातः, सायं सेवन से फायदा होता है। अपस्मार में इसके पत्तों का सेवन दूध के साथ करने से लाभ होता है। उदर रोगों में मण्डूकपर्णी तथा निशोथ (त्रिवृत) का साग इन दोनों के स्वरस में पकाकर (केवल उबला हुआ) खटाई तथा घी के बिना सेवन करना चाहिए। यह सेवन पेट की समस्त विकारों का नाश करता है। अपच रोकता है। पाचन शक्ति बढ़ जाती है। कब्ज मिट जाता है। भूख खुलकर लगती है तथा मलमूत्र स्वच्छता से आता है। इस औषधि का सेवन पेट जनित हर प्रकार के रोगों को पनपने नहीं देता। जब प्यास लगे तो इन दोनों के स्वरस का ही सेवन करना चाहिए। शीतल रोग में मण्डूकपर्णी का स्वरस के शहद के साथ सेवन करने से लाभ होता है। फोड़े-फुन्सियों में इसके पंचांग का स्वरस लगाने से फायदा होता है।
मात्रा- ताजे पत्र बच्चों को 2 से 4 रोजाना प्रौढ़ों को 8 से 12 प्रतिदिन स्वरस-10 से 20 मि.ली. प्रतिदिन। पत्रों का चूर्ण रोज 1-2 मि. ग्राम।
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