अकरकरा (Pellitory Root)
प्रचलित नाम- अकरकरा ।
उपयोगी अंग- मूल, पंत्र एवं फूल ।
परिचय- चिरस्थायी सीधे लेकिन झुके हुए गुल्म, पत्ते दिपक्षवत् संयुक्त, फूल पीले रंग के मुंडक में होते हैं।
स्वाद- तीखा ।
गुण- लाल प्रवेषक, उत्तेजक, निद्राजनक, कीटाणुघ्न ।
उपयोगिता एवं औषधीय गुण
दंतशूल, पक्षाघात, आमवात, अपस्मार तथा पुरुषों के शिश्न विकारों में प्रयोग। अपस्मार में इसका चूर्ण शहद के साथ सेवन से लाभ होता है।
दंत शूल में- अकरकरा तथा कटसरैया समान मात्रा में मिलाकर पीसकर इसको दांत के बीच में रखने से फायदा होता है। इसके मूल का प्रयोग टूथपेस्ट बनाने में किया जाता है।
मूत्राश्मरी- अकरकरा, गोक्षुर, मूल, तुलसी का रस, पाषाण मेद, एरण्ड का मूल, पिप्पली, मुलैठी, निर्गुण्डी, लौंग, सोठ-इन सबका क्याथ बनाकर इसमें छोटी इलायची का चूर्ण मिलाकर, सात दिन तक सेवन करने से बड़ी से बड़ी अश्मरी, मूत्र मार्ग से बाहर निकल जाती है। अकरकरादि चूर्ण या अमृतप्रभा चूर्ण के प्रयोग से मंदाग्नि, अरुचि, खाँसी, श्वासरोग, प्रतिश्याय एवं उन्माद दूर हो जाता है।
अमृतप्रभा चूर्ण- इसके लिये अकरकरा, सेंधा नमक, चित्रा, आंवला, काली मिर्च, पिप्पली, अजवायन, हरड़, इन सबका एक-एक भाग और सोंठ दो भाग, इन सबको मिलाकर चूर्ण बनाने के बाद इसको विजारा के रस की भावना देकर चूर्ण अथवा गोली बनाई जाती है। वैदिक शास्त्र में इसको अमृतप्रभा या अकरकरादि चूर्ण कहते हैं। अकरकरा चूर्ण-इसका बारीक चूर्ण सूंघने से बंद नाक का स्वर खुलता है। अकरकरा को शहद के साथ चबाने से पक्षाघात एवं नेत्रों में अंधेरा छाने जैसे रोगों में लाभदायक है।
फिरंग रोग में- शुद्ध पारद आधा तोला, खदिर सार आधा तोला, अकरकरा एक तोला, तोला- इन सबको मिलाकर इनकी सात गोलियाँ बना लें। रोगी को रोजाना एक गोली जल के साथ खाने से फायदा होता है। नमक तथा खट्टे पदार्थ का सेवन वर्जित है। नमक अथवा खट्टा पदार्थ लेने से अकरकरा का औषधीय गुण कम हो जाता है।
पीनस और प्रतिश्याय में – इसको बारीक पीसकर तेल में मिलाकर मालिश करने से पक्षाघात में फायदा होता है। श्वित्र रोग में इसके पत्रों के स्वरस को, श्वेत दागों पर लगाने से कोढ़ रोग समाप्त होता है।
मात्रा- 1/2-1 ग्राम ।
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