कलिहारी (Glorieasa Superba)
प्रचलित नाम- कलिहारी, कलियारी, लंगाली, लांगुली ।
उपलब्ध स्थान- यह जंगली पौधा है। कलिहारी दो तरह की होती हैं एक का कन्द गोल होता है, इसको स्त्री वृक्ष कहते हैं। दूसरे का कन्द लम्बा तथा जुड़ा होता है, इसको पुरुष वृक्ष कहा जाता है। इसके पत्ते कचूर के पत्तों की तरह होते हैं। इसके फूल लाल, पीले और अग्निशिखा की भांति होते हैं। इसके प्रत्येक फूल में छः पंखुड़ियां होती हैं। इसकी छाल पतली, ढीली, हल्की और बादामी रंग की होती है। इसके पत्ते फैले हुए, तीखी नोकवाले और बरछी के आकार के होते हैं। इनकी नसें समानान्तर होती हैं।
उपयोगिता एवं औषधीय गुण
आयुर्वेद – यह एक उपविष है, इसकी गांठें कड़वी, कसैली तथा चरपरी होती हैं। यह कृमिनाशक, विरेचक, विष निवारक और गर्भघातक होती हैं। कुछ वैद्यों के मतानुसार कलिहारी सारक, कड़वी, चरपरी, क्षारयुक्त, पित्तजनक, तीक्ष्ण, गरम, कसैली, हल्की और कफ, वात, कृमि, वस्तिशूल, विष, कोढ़, बवासीर, व्रण, सूजन, शोष, शूल, शुष्कगर्म और गर्भ को समाप्त करने वाली होती है।
यूनानी- यह गरम और खुश्क है। यह अत्यन्त नशा उत्पन्न करने वाली और विषैली होती है। इसकी जड़ आंतों की शिकायतों में मुफीद है। इसके फूल ज्वर और प्यास में लाभकारी हैं। इसकी गांठें संकोचक और कफ निस्सारक हैं। यह बवासीर और प्यास में उपयोगी है। इसकी गांठों का लेप प्रसूता स्त्री का दर्द बढ़ाने के लिए नाभि और योनि पर किया जाता है। कलिहारी की गांठों को कुचलकर उसका अर्क बारीक वस्त्र से छान कर चर्म रोगों में लगाएं फायदा होगा।
1. यदि प्रसूता स्त्री की आंवल न गिरती हो तो इसकी जड़ को पीसकर हथेली और तलवों पर लेप करना चाहिए या इसके रस को रूई में भिगोकर, बत्ती बनाकर योनि मार्ग में रखनी चाहिए।
2. इसकी औषधि की जड़ को पीसकर नाभि और योनि पर मलने से गर्भ गिर जाता है। इसलिए गर्भवती औरतों को इसके उपयोग से बचना चाहिए।
3. कंठमाला रोग, कर्णरोग और चर्मरोग पर भी यह औषधि बहुत फायदेमन्द है। सर्प विष, बिच्छू के जहर पर भी यह औषधि लाभदायक है।
4. कलिहारी के कन्द को जल में पीसकर दाहिनी दाढ़ में दर्द हो तो बाएं हाथ के अंगूठे के नाखून पर और बांई दाढ़ में दर्द हो तो दाहिने हाथ के अंगूठे के नख पर लगाने से दाढ़ का कीड़ा मरकर गिर जाता है और दर्द से सदैव के लिए छुटकारा मिल जाता है।
5. इसके कन्द को कूटकर, जल में भिगोकर, मल-छानकर देने से सुजाक की बीमारी में फायदा होता है।
6. इसमें कन्द और निरगुन्डी के रस से सिद्ध किए हुए तेल को सुंघाने से कंठमाला में फायदा होता है।
7. इसको गुड़ के साथ खिलाने से आंतों के कीड़े मर जाते हैं तथा इसका चूर्ण भुरभुराने से जख्म के कीड़े मर जाते हैं।
8. इसकी ढाई से छः रत्ती तक की मात्रा दिन में तीन बार देने से पुरुषार्थ तथा पराक्रम बढ़ जाता है।
9. इसके पत्ते के चूर्ण को मेदे के साथ देने से कामला रोग में फायदा होता है।
10. इसकी जड़ को योनि में रखने से योनिशूल मिट जाता है।
11. इसको नींबू के रस के साथ कान में टपकाने से पीब साफ हो जाता है तथा कीड़े मर जाते हैं।
12. इसकी जड़ को ठंडे जल में पीसकर कनखजूरे अथवा बिच्छू के काटे हुए स्थान पर मलकर सेंक करने से फायदा होता है।
13. इसकी मात्रा आरम्भ में आधी रत्ती से प्रारम्भ करके आधे माशे तक बढ़ाई जा सकती है। इसमें कुछ जहरीली मात्रा होने के कारण यह यौन रोगों में लाभदायक तो है; पर मात्रा थोड़ी ही रखें। जब इसके सेवन के लिए शरीर आदी हो जाए तो इसकी थोड़ी मात्रा और बढ़ा सकते हैं।
कलिहारी शोधन विधि-कलिहारी एक तरह का उपविष है, इसलिए इसको बिना शुद्ध किए हुए प्रयोग में नहीं लेना चाहिए। इसको शुद्ध करने की तरकीब इस प्रकार है-जब इसके पुष्प आ जाएं तो नर पौधे की जड़ को जमीन में से निकालकर उसके पतले-पतले कतले बनाकर नमक छिड़के हुए मट्ठे में गला दें, पूरी रात उसमें उनको गलने दें और दिन में उनको सुखा दें। इस तरह पांच-सात दिन तक भिगो-भिगो कर सुखाना चाहिए। सुखाने की इस क्रिया के बाद कलिहारी का शोधन हो जाता है।
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