काकजंघा (Leeahirta)
प्रचलित नाम- काकजंघा ।
उपलब्ध स्थान- यह औषधि सिक्किम, हिमालय, पूर्व बंगाल, सिलहट, बरमा, खासिया पहाड़, अंडमान, मलाया प्रायद्वीप, सुमात्रा और जावा में पैदा होती है।
परिचय- यह एक छोटी क्षुप जाति की वनस्पति होती है। इसके पत्ते हरे, काले रंग के, गोलाकार, तीखी नोकवाले तथा रुएंदार होते हैं। इसके फूल छोटे-छोटे श्वेत और काले रंग के होते हैं। इसका फल पकने पर काला पड़ जाता है। इसकी शाखाएं गांठदार होती हैं।
उपयोगिता एवं औषधीय गुण
आयुर्वेद- इसकी जड़ कड़वी, कसैली, गरम तथा चरपरी होती है। यह कृमिनाशक, व्रण पूरक, ज्वरनिवारक तथा विषनाशक होती है। यह वायुनलियों के प्रदाह में, चर्म की संज्ञाशून्य स्थिति पर, अग्निमांद्य पर, पित्त जनित बुखार में, कुष्ठ रोग में, खुजली में तथा क्षय रोग जनित व्रणों में बहुत ही लाभकारी है। इसकी ताजी जड़ को स्वच्छ जल से धोकर पत्थर पर घिसकर लेप को व्रण पर लगाने से दर्द में आराम मिल जाता है।
यूनानी- यह गरम तथा खुश्क है। किसी-किसी के मत से सर्द तथा तर है। यह औषधि कफ को बाहर निकालती है। फोड़े-फुन्सी को समाप्त करती है। गहरे जख्म को भरती है। चर्म रोगों में अत्यंत लाभदायक है।
“तज किरतुल हिन्द” नामक पुस्तक में लिखा है कि एक व्यक्ति को एक प्रकार का कुष्ठ हो गया था, जिससे उसका सारा बदन ताम्बे की तरह लाल हो गया था और उसे बड़ी पीड़ा थी। उसको काकजंघा का शीरा तीन तोले से आरम्भ करके 1 पाव तक पिलाया गया और शरीर पर कटुतुम्बी के बीजों का तेल मालिश किया गया, जिससे काफी जल्दी आराम हो गया। काकजंघा कुष्ठ रोग के साथ हर तरह के चर्म रोग में लाभकारी है।
1. काकजंघा की डाली, पत्ते तथा जड़, तीनों को कुचलकर रस निकाल लेना चाहिए। फिर उस रस को धीमी आंच पर इतना औटाना चाहिए कि उसके दो भाग जल जाएं और वह गाढ़ा हो जाए।
फिर उसे एक बर्तन में रख देना चाहिए। जब मोम की तरह वह जम जाए, तब उसकी टिकियां बनाकर डोरे में पिरो लेना चाहिए। इन टिकियों को जल में गलाकर गठिया पर लेप करने से बड़ा फायदा होता है। इस लेप को कई दिनों तक करने से गठिया की सूजन मिटने के साथ दर्द में सदा के लिए आराम मिल जाता है।
2. इसकी जड़ को चावलों के जल के साथ पीसकर पीने से श्वेत प्रदर मिट जाता है।
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