गम्भारी (Shivan)
प्रचलित नाम- गम्हार।
उपयोगी अंग- पंचांग, मूल तथा फल ।
परिचय- यह महाकाय विशाल पेड़ होता है। यह औसतन 20 मीटर ऊँचा होता है। इसकी शाखाएं श्वेताभ, रोमश, पत्ते हृदयाकार नुकीले, अभिमुखी, लेकिन इन दो पत्तों में एक छोटा तथा एक बड़ा रहता है। पुष्प पीले रंग के या रक्ताभ होते हैं। फल बहेड़े की तरह लम्बे एवं अविष्ट होते हैं।
स्वाद- तीखा ।
गुण- दाह प्रशामक, शान्ति प्रदायक, उन्माद हर, मृदुरेचक, दीपन, तिक्तबल्य ।
गुण एवं मात्रा- शोथ, बुखार, कास, सुजाक, मुखगत रोग, विषघ्न, गर्भप्रदर, मक्खी के लार्वा युक्त व्रण, कुपचन, रक्तदोष व अर्श में लाभदायक होता है। इसके फल रक्त शोधन, तृषा, यक्ष्मा, मूत्रकृच्छ्र एवं श्वेत प्रदर में लाभदायक होते हैं। खाज-खुजली में कोमल टहनियों के पत्र तथा आगे के भागों का रस मिश्री में मिलाकर सेवन से फायदा होता है। पित्त ज्वर में इसके मूल का रस सेवन करने से फायदा होता है। दाह में दाहग्रस्त भाग पर इसके पत्रों का रस लगाने से जलन कम होती है।
मूत्रघात में इसके मूल को ठंडे पानी में घिसकर इस जल का सेवन करने से फायदा होता है। रक्तातिसार में इसके फलों का रस किंचित् अम्ल द्रव्य डालकर, मिश्री मिलाकर पिलाने से रक्तातिसार समाप्त हो जाते हैं। गर्भ सूखता हो या वायु के कारण बच्चा सूखता जाता हो तो इसके फल एवं मुलैठी से सिद्ध किया हुआ घृत शिशु को मिश्री के साथ पिलाना चाहिए। यह बच्चों के सूखा रोग की आजमाई हुई औषधि है। छोटा बच्चा रोग की पीड़ा बता नहीं पाता, रोता रहता है, चिड़चिड़ा रहता है। खाना-पीना कम कर देता है। शरीर दुबला होता जाता हो तो जानना चाहिए कि उसे सूखा रोग है। गर्भ के शुष्क होने पर गंभारी और मुलैठी से सिद्ध किया हुआ इसका तेल प्रयोग करने से वात रक्त समाप्त होता है। दाह एवं तृषायुक्त पित्तज्वर में इसके फल के गर्भ का क्वाथ ठंडा करके तथा मिश्री मिलाकर पिलाने से दाह, तृषा तथा बुखार का शमन होता है। रक्तपित्त में इसके फल की मज्जा शहद के साथ सेवन करने से लाभ होता है। शीत पित्त में इसके पके हुए फलों को सुखाकर बनाया हुआ चूर्ण दूध में मिलाकर पिलाने से शीतपित्त का नाश हो जाता है। अंगुलिवेष्ट रोग में इसके सात कोमल पत्ते अंगुली पर लपेटकर बाँधने से फायदा होता है। माताओं में स्तन वृद्धि के लिए इसकी त्वचा तथा मुलैठी का क्याथ पिलाने से फायदा होता है। सूजाक में इसके पत्रों के स्वरस सेवन से फायदा होता है। गंभारी की काष्ठ से कृत्रिम अंग और स्टेथोस्कोप आदि साधन बनाये जाते हैं।
मात्रा- मूल त्वक क्वाथ-50-100 मि. ली.।
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