गूलर (Lusterfig)
प्रचलित नाम- गूलर / उदुम्बर।
उपयोगी अंग – पंचांग (सभी अंग- मूल, पत्र छाल, फल, दुग्धक्षीर)
परिचय- यह विशाल कंद का सदा हरित रहने वाला पेड़ 50-60 फीट ऊँचा होता है। पत्ते गहरे हरे रंग के चमकदार तथा चिकने होते हैं। पुरानी काष्ठमय शाखाओं पर गोल, मांसल उदुम्बर फल, सटे हुए गुच्छों में आते हैं। कच्चे फल हरे और पकने पर भूरे पड़ जाते हैं।
स्वाद – कडुवा, मधु ।
उपयोगिता एवं औषधीय गुण
मीठा, शीतल, व्रणरोपण, रक्तशोधन, शोथहर। मधुमेह, अतिसार, प्रवाहिका, संग्रहणी, रक्तार्श श्वित्र, अम्लपित्त, कण्डु रोगों में सुबह-सवेरे 21 दिन तक गूलर का कच्चा या पक्का फल सेवन से लाभ होता है। श्वित्र रोग में इसके फल के रस का प्राचीन गुड़ के साथ सेवन करने से फायदा होता है। पित्तातिसार में इसके कोमल पत्तों का काढ़ा या पत्रों को छाछ में पीसकर पिलाने से फायदा होता है। प्रमेह पिटिका में मधुमेह के कारण होने वाले गण्डज ठीक नहीं होते हों तो उन पर गूलर का दूध लगाना चाहिए। गर्भपात में जिस स्त्री को बार-बार गर्भ पतन होता हो, उसको रोकने के लिए गूलर के पुष्पों के क्वाथ में मिश्री मिलाकर सेवन कराना चाहिए। अर्श में गूलर के पर करना चाहिए। इस समय घी का सेवन ज्यादा-से-ज्यादा मात्रा में करना चाहिए। कैंसर में (कंठ कैंसर) दुग्ध का लेप अर्श इसके मूल में जीरा मिलाकर रस का सेवन कराना चाहिए। इससे कंठ कैंसर वाले रोगी को फायदा होकर आराम मिलता है। मधुमेह में इसके मूल रस तीन से चार चम्मच देना चाहिए। किन्तु इस रस का सेवन एक-दो दिन नहीं, कम-से-कम 30 रोज तक करें। पहले मधुमेह नियंत्रित होगा। जब नियंत्रित हो जाए तो कुछ दिन औषधि रोककर पुनः 30 रोज तक सेवन करें। इस प्रकार तीन माह तक इसके प्रयोग से मधुमेह को हमेशा के लिए नियंत्रित किया जा सकता है।
व्रण में गूलर की छाल का क्याथ बनाकर इसमें हल्दी मिलाकर पिला देना चाहिए, यह चेचक, स्नायुशूल, शुक्रमेह, व्रणरोपण, वपर्य, अस्थिसंधानक और योनिदोष में फायदेमंद है। रक्तप्रदर, अत्यार्त्तव एवं गर्भपात में लाभदायक है।
रक्तपित्त में इसके पके हुए फल को शहद या गुड़ के साथ सेवन से लाभ होता है। नेत्र शोध में इसके दुग्धक्षीर का लेप आंखों की पलक पर लाभकारी है। रक्तातिसार में इसके तथा वट जटा के स्वरस के सेवन से फायदा होता है। अश्मरी में इसके रस में शर्करा मिलाकर सेवन से फायदा होता है। गर्भवती महिला के अतिसार में इसके फल का सेवन शहद के साथ करने से लाभ होता है। दाह में इसका दुग्धक्षीर, शर्करा मिलाकर सेवन से फायदा होता है। रक्तप्रदर में इसके पके हुए फलों को सुखाकर, पीसकर वस्त्र से छानकर, चूर्ण बनाकर, आधा तोला चूर्ण समभाग शर्करा के साथ; इसके साथ-साथ इसके क्याथ द्वारा व्रण को धोना चाहिए। बहुमूत्रता में (बार-बार मूत्र आने की प्रक्रिया में) गूलर की छाल का क्याथ दो चम्मच, अजवाइन का चूर्ण मिलाकर अवश्य सेवन कराना चाहिए।
दांत के रोगों में दाँतों में से रक्तस्राव होता हो, दाँत हिलते हों, तो इसके पत्तों के क्वाथ से कुल्ला करने से फायदा होता है। रुधिर विकार में गूलर की छाल एवं नीम के पत्तों का काढ़ा बनाकर रोजाना पिलाना चाहिए तथा इस क्वाथ से स्नान कराना चाहिए। थकावट में गूलर के फल के साथ काली द्राक्षा मिलाकर बनाए हुए शरबत का सेवन कराने से थकावट दूर हो जाती है।
मात्रा – फल का चूर्ण-2 से 5 ग्राम, जल या दूध के साथ दिन में तीन बार छाल का चूर्ण-5 ग्राम दूध या जल के साथ दिन में तीन बार ।
छाल का क्वाथ – 30 मि.ली. शहद के साथ दिन में तीन बार ।
क्षीर- 5-10 बूंद ।
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