रेयॉन निर्माण की विभिन्न विधियों के नाम एवं किसी एक विधि का चित्र सहित विस्तार से वर्णन कीजिये।
रेयॉन निर्माण की मुख्यतः चार विधियाँ है जो कि निम्न है—
- नाइट्रो सेल्युलोज विधि
- विस्कोस विधि
- क्यूप्रेमोनियम विधि
- सेल्युलोज ऐसीटेट विधि
(1) नाइट्रो सेल्युलोज विधि- रेयॉन का उत्पादन सर्वप्रथम इसी प्रक्रिया के माध्यम से हुआ था। इसका प्रारम्भ सन् 1884 में फ्रांस के काउण्ट हिलेरे चार्डोनेट ने किया था। इस प्रक्रिया में रुइ को गन्धक तथा शोरे के अम्ल की प्रक्रियाओं द्वारा नाइट्रो-सेल्युलोज रेशों में परिवर्तित कर दिया जाता है। इससे प्रज्वलनशील पदार्थ बनता है। इस पदार्थ को ईथर में घोला जाता है तथा इस घोल को छोटे-छोटे छिद्रों के द्वारा वायु में बाहर निकाला जाता है। ईथर भाप बनकर उड़ जाता तथा उसके स्थान पर सुन्दर धागा प्राप्त हो जाता है। इस धागे को अज्वलनशील बनाने हेतु हाइड्रो-सल्फाइड की प्रक्रिया की जाती है।
आजकल अधिक व्ययशील होने के कारण इस विधि का प्रयोग नहीं किया जाता है।
- (A) कपास की पट्टियाँ + H,SO, + HNO,→ नाइट्रोसेल्युलोज
- (B) नाइट्रोसेल्युलोज + ईथर + ऐल्कोहॉल →कोलॉयडल घोल
- (C) कोलॉयडल घोल (स्पीनिरेट के छिद्रों से होकर गुजारना) -↓↓↓↓↓↓↓↓↓ + ऐल्कोहॉल एवं ईथर का वाष्पीकृत होकर उड़ना ↑
(2) विस्कोस प्रक्रिया – विस्कोस का सर्वप्रथम निर्माण ब्रिटिश रासायनिक वेवन, क्रास तथा बीडल ने सन् 1892 में किया था। आधुनिक समय में रेयॉन का अधिकांश उत्पादन इसी प्रक्रिया के द्वारा सम्पादित किया जाता है, क्योंकि इसमें उत्पादन का व्यय ही कम नहीं है, अपितु धागा भी विशेष रूप से सुन्दर निकलता है। भारत में विस्कोस रेयॉन बनाने के लिए बाँस का प्रयोग किया जाता है।
सर्वप्रथम बाँस की लुग्दी बनाई जाती है, फिर उसे शुद्ध किया जाता है तत्पश्चात् विस्कोस क्रिया में लकड़ी की लुग्दी पर कास्टिक सोडा की प्रक्रिया की जाती है। जेन्थेट सेल्युलोज बनाने के लिए इस लुग्दी को कार्बन डाइ-सल्फाइड में मिश्रित किया जाता है। कास्टिक सोडे के अशक्त घोल में घोल दिया जाता है। इसमें लाल अथवा नारंगी रंग का द्रव पदार्थ बन जाता है जो स्वच्छ करने के उपरान्त तथा जमाने पर विस्कोस के नाम से जाना जाता है। इसके उपरान्त इसको छोटे-छोटे छिद्रों द्वारा सल्फ्यूरिक एसिड के घोल में निकाला जाता है, जिसमें जेन्थेट सेल्युलोज जम जाता है।
तदुपरान्त कई सुन्दर रेशों को एक साथ खींचा जाता है जो रेयॉन के धागे की आकृति ले लेते हैं।
(A) लकड़ी + बाँस की + कपास की + सोडियम→ क्षारीय सेल्युलोज
लुग्दी पट्टियाँ हाइड्रॉक्साइड डुबोकर रखना
(B) क्षारीय सेल्युलोज (नियंत्रित ताप व दाब कार्बन डाइ-सल्फाइड 3-4 दिन तक रखना) = एक्सेन्थेट सेल्युलोज
(C) एक्सेन्थेट सेल्युलोज + सोडियम हाइड्रॉक्साइड का हल्का घोल (घोलना)___ गाढ़ा घोल
(D) गाढ़ा घोल (स्पीनिरेट के छिद्र/अम्लीय माध्यम)+ छानना →रेयॉन का रेशा तैयार
( 3 ) क्यूप्रेमोनियम प्रक्रिया- यह प्रक्रिया सन् 1897 से प्रचलित है। इसमें रुई की पट्टियाँ अथवा लकड़ी की लुग्दी का प्रयोग किया जाता है। इसे पहले कास्टिक सोडा या सोडा एश में उबाला जाता है और इसके उपरान्त इसे क्लोरीन में ब्लीच करके विरंजित किया जाता है। तपश्चात् इनको धोकर सुखा दिया जाता । फिर इनको कॉपर सल्फेट और अमोनियम हाइड्रॉक्साइड के घोल में घोला जाता है। द्रव पदार्थ को धागा बनाने के लिए जमने के लिए छोड़ दिया जाता है। फिर इस पदार्थ को छोटे-छोटे छिद्रों द्वारा अम्लीय द्रव के घोल में डाला जाता है। तब वह पुनर्निर्मित सेल्युलोज रेशे के रूप में आ जाता है। इन रेशों को सुन्दर रेशे का रूप देने के लिए खींचा जाता है।
(4) सेल्युलोज ऐसीटेट विधि- इस प्रक्रिया का व्यापारिक स्तर पर विकास सन् 1918 से ही हुआ है। यद्यपि इसका अनुसन्धान आधी शताब्दी पूर्व ही हो गया था। किन्तु ऐसीटेट रेयॉन, तीनों प्रकार के रेयॉन के भिन्न है, क्योंकि जिस पदार्थ से इसका रेशा बनता है, वह पुनर्निर्मित किया रेशा तन्तु नहीं है, बल्कि सेल्युलोज, ऐसीटिक अम्ल तथा सेल्युलोज ऐसीटेट का सम्मिश्रण है।
जब लकड़ी की लुग्दी या रुई की पट्टियों पर ऐसीटिक एनहाइड्राइड प्रक्रिया वांछित परिस्थितियों में की जाती है तो यह सेल्युलोज ऐसीटेट में परिवर्तित हो जाता है तब इसको धोया एवं सुखाया जाता है। इसके उपरान्त इसको ऐसीटोन (Acetone) में घोला जाता है। इस घोल को छोटे-छोटे छिद्रों के द्वारा वायु में निकाला जाता है जहाँ पर इसे गरम कमरे में रखकर, भाष उड़ाकर ठोस रूप में लाया जाता है।
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