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लिनन के निर्माण की प्रक्रिया एवं भौतिक विशेषतायें

लिनन के निर्माण की प्रक्रिया एवं भौतिक विशेषतायें
लिनन के निर्माण की प्रक्रिया एवं भौतिक विशेषतायें

लिनन के निर्माण की प्रक्रिया एवं भौतिक विशेषतायें

सन के पौधे से लिनन बनाने का कार्य बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है। मिस्त्री लोगों के अनुसार देवताओं ने सबसे पहले पृथ्वी पर सन को उत्पन्न किया था। यह विश्वास किया जाता है कि इसको 10000 वर्ष पहले से प्रयोग में लाया जा रहा है। अतः लिनन भूतकाल में भी बहुत महत्वपूर्ण वस्त्र रहा है। आधुनिक युग में भी प्रत्येक गृहणी इसका प्रयोग बड़े गर्व से करती है।

लिनन के निर्माण की प्रक्रिया

लिनन से वस्त्र निर्माण की प्रक्रिया निम्नवत् है-

शुष्कीकरण – पौधे को उखाड़ने के उपरान्त एक बण्डल के रूप में बाँधकर कुछ दिनों के लिए सूखने को रख दिया जाता है। फिर पौधे के तने को झुला झुलाकर हिलाने की प्रक्रिया द्वारा उनकी पत्तियों और बीज को अलग कर दिया जाता है। यह कार्य पौधे के सिरे को एक यन्त्र में से निकालकर किया जाता है। इसमें इस बात की सावधानी रखी जाती है कि तना टूट न जाये तथा उसे किसी प्रकार की हानि भी न पहुँचे। पत्तियाँ तथा बीज हट जाने के उपरान्त तने को पुन: एक बण्डल के रूप में बाँध दिया जाता है।

गलाना – रेशे को तैयार करने में गलाना सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में तने को भाप देकर रेशे को छाल से अलग करके गलाया जाता है। यह प्रक्रिया अत्यन्त सावधानीपूर्वक करनी पड़ती है, क्योंकि लेशमात्र असावधानी से भी रेशे को हानि पहुँचाने की आशंका है। यदि सन को मुलायम करने का कार्य आवश्यकता से अधिक हो गया, तो रेशे को हानि पहुँचेगी तथा यदि आवश्यकतानुसार नहीं हुआ तो रेशे निकलेगा नहीं।

यह कार्य करने के लिए तीन प्रविधियाँ काम में लायी जाती हैं-

(1) पानी के द्वारा (2) ओस के द्वारा (3) लकड़ी के बर्तन के माध्यम से।

( 1 ) पानी में गलाना– तने के बण्डलों को बहते हुए पानी में या रुके हुए पानी में करीब दो सप्ताह के लिए रखा जाता है। अच्छी किस्म का तन्तु ठण्डे व धीरे-धीरे बहते में बनता है। तेजी से बहता हुआ पानी बैक्टीरियाओं को बहा ले जाता है, जिससे तन्तु तने के गूटे हुए पानी से ठीक प्रकार अलग नहीं हो पाते हैं, फिर बण्डलों के बोरे या भूसे से ढककर उन पर भारी-भारी पत्थर रख दिये जाते हैं। करीब दो हफ्ते परीक्षण किया जाता है कि किन्तु तने से बाद निकल सकते हैं या नहीं। यदि निकल सकते हैं तो उनको पानी से निकालकर सुखाने के लिए रख दिया जाता है।

(2) ओस में गलाना- तनों को मैदान में बिखेर दिया जाता है और वर्षा, धूप ओस की बूँदें कई सप्ताह तक उन पर पड़ती रहती हैं। इनको उस समय तक पड़ा रहने दिया जाता है, जब तक तने से तन्तु आसानी से अलग न होने लगें।

(3) लकड़ी के बर्तन में गलाना – तनों को 75° से लेकर 90° के तापमान पर लकड़ी के बर्तन में पानी में डुबोया जाता है। जब तक कि तना मुलायम न हो जाये, बराबर बर्तन में ही रखा जाता है, फिर तनों को पानी में से निकालकर बण्डल को ढीला कर दिया जाता है व शैलरों के बीच में से उनको निकाला जाता है। इस विधि को पाऔनेल्स प्रक्रिया कहा जाता है।

तोड़ना तथा पीटकर रेशे अलग करना- अब तना पूर्ण रूप से सूख जाता है, तब इसको एक मशीन के मध्य से निकाला जाता है, जिसके परिणामस्वरूप तने का बाहरी भाग टूट जाता है। इसके उपरान्त इसको दूसरे यन्त्र के मध्य से निकाला जाता है, जिससे रेशे लकड़ी वाले भाग से अलग हो जाते हैं। इसी प्रक्रिया को रेशा निकालने वाली प्रक्रिया कहते हैं।

सन को साफ करने की प्रक्रिया – यह अन्तिम प्रक्रिया है। उसके उपरान्त रेशा इस योग्य हो जाता है कि उसकी कताई की जा सके। इस प्रक्रिया में कई लोहे के कंधों को काम में लाया जाता है। रेशों को लोहे की कंघियों के दाँतों द्वारा खींचा जाता है। खींचने पर जो लम्बे रेशे निकलते हैं, उन्हें अच्छे वस्त्रों, पोशाकों एवं रूमाल आदि बनाने के काम में लाया जाता है तथा छोटे रेशे (Staple) को निम्न श्रेणी के वस्त्र बनाने के काम में लाते हैं।

कताई – लिनन का सुन्दर, लम्बा तथा बहुत बढ़िया प्रकार का सूत निकालने के लिए सन की गीली अवस्था में ही काता जाता है। यदि घटिया प्रकार के सूत की आवश्यकता होती है, तो सन को सुखाकर काता जाता है।

बुनाई – वस्त्र की बुनाई हो जाने के उपरान्त इस पर विरंजन (ब्लीचिंग) किया जा सकता है। सस्ते प्रकार के वस्त्रों में कलफ़ भी लगा दिया जाता है, किन्तु वस्त्र के धुलने पर उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है।

सन के रेशों की कताई – बुनाई हो जाने के उपरान्त जो वस्त्र तैयार होता है, वह टिकाऊ तथा कड़ापन लिए होता है। यह मेजपोशों के लिए अत्यधिक आकर्षक होता है।

लिनन की भौतिक विशेषतायें

लिनन की भौतिक विशेषतायें निम्नवत् है-

( 1 ) संघटन-इस तन्तु में मुख्य रूप से 66% से 70% तक उद्भिज होता है व 25% से 30% तक प्राकृतिक अशुद्धियाँ होती हैं।

(2) रचना या सूक्ष्मदर्शीय आकार- सन का तन्तु लम्बा, गोल, चिकना व अर्धपारदर्शी होता है। बिना बल दिया तन्तु सूत के तन्तु की तरह दिखता है। लिनिन का तन्तु छोटे-छोटे छिद्रों से मिलकर बना है। इस तन्तु की 12 से 36 इंच तक की लम्बाई होती है।

( 3 ) मजबूती – सन का रेशा सर्वाधिक मजबूत होता है। इसी कारण लिनन कटन या छेद होने से पूर्व यह क्रमशः अत्यन्त पतला हो जाता है, जबकि अन्य वस्त्रों में इसके अपेक्षाकृत पतला होने से पूर्व ही छिद्र होने लगते हैं। लिनन सूती वस्त्र की अपेक्षा दुगुना मजबूत होता है।

( 4 ) चमक – लिनन में रेशम के समान चमक होती है, किन्तु इसके रेशे में प्राकृतिक मोम जैसा चिकना पदार्थ लगभग दो या तीन प्रतिशत की मात्रा में पाया जाता है। यदि रासायनिक पदार्थ या घोलों के द्वारा चिकने पदार्थ को हटवा दिया जाये, तो रेशे कड़े एवं खुरदरे हो जाते हैं।

( 5 ) तन्यता – सन में बहुत कम तन्यता होती है। इसी कारण प्रायः लिनन की पोशाकों में संकुचन-प्रतिरोधक परिष्करण की जाती है, लेकिन ऐसी हालत में वस्त्र निर्बल हो जाता है।

( 6 ) नमी का प्रभाव – सन शीघ्रतापूर्वक पानी को आत्मसात् कर लेता है। पानी को शीघ्रता से अवशोषण करने का मुख्य कारण रेशे में पानी शोषण की विशेषता के कारण नहीं है, अपितु इसका मुख्य कारण उसकी सतह पर शीघ्रता से पानी का फैलना है। लिनन जितनी शीघ्रता से पानी को आत्मसात् करता है, उतनी शीघ्रता से वह उसको त्याग भी देता है। परिणामस्वरूप वह पानी शीघ्रता से सोख लेता है।

( 7 ) ताप का संचालन – सन ताप का अच्छा संचालक है। यह शरीर की गर्मी को शीघ्र निकाल देता है तथा सदैव ठण्डा प्रतीत होता है।

( 8 ) गर्मी का प्रभाव – सन में धूप प्रतिरोधण तथा जलने की वे ही विशेषताएँ हैं, जो कि कपास के रेशों में पायी जाती हैं। धोने, सुखाने से इस पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता|

( 9 ) कीड़ा लगना – लिनन के वस्त्रों में कीड़े नहीं लगते हैं। फफूँदी सूती वस्त्र के सदृश आसानी से लग जाती है।

( 10 ) घर्षण का प्रभाव – इस पर रगड़ने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है तथा धोने पर मजबूती बनी रहती है।

( 11 ) संकुचन- यदि लिनन के वस्त्र बुन जाने के बाद खींचे, फैलाये न गये हों, तो बिल्कुल नहीं सिकुड़ते।

( 12 ) रंग- लिनन के रेशे का रंग हल्के पीले से लेकर गहरे पीले तक होता है। ओस से गलाने पर रेशे के रंग में परिवर्तन हो जाता है और यह ग्रे रंग का हो जाता है। उत्तम कोटि के रेशे पीले रंग के होते हैं।

(13) विद्युत संवाहकता – लिनन विद्युत का अच्छा संवाहक होता है। इस कारण इसमें स्थैतिक विद्युत प्रभार निर्मित नहीं होती है। अतः वस्त्र अत्यन्त आरामदायक होता है।

(14) नमी अवशोषकता – लिनन के रेशे में 6-8% तक नमी होती है। लिनन नमी को शीघ्रता से सोख लेता है तथा यह नमी सम्पूर्ण कपड़े में फैल जाती है। इतना ही नहीं, यह नमी शीघ्रता से सूख भी जाती है। अतः यह रूमाल, नेपकीन, तौलिये, आदि के अनुरूप वस्त्र हैं। परिधान के रूप में यह उत्तम होता है क्योंकि यह पसीने की शीघ्रता से सोखकर उन्हें सुखा देता है।

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