वस्त्रोपयोगी रेशों की विशेषतायें बताइये। वस्त्रोपयोगी तन्तुओं के भौतिक एवं रासायनिक गुणों का वर्णन कीजिये।
वस्त्रोपयोगी रेशों की विशेषताएँ
रेशे साग सब्जी, अनाज में भी होते हैं किन्तु प्रत्येक रेशा वस्त्र बनाने के काम नहीं आता क्योंकि धागा और उससे वस्त्र बनाने के लिए रेशों के कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता होती है, जैसे रेशे की लम्बाई, तनाव सामर्थ्य, लचीलापन, ताप, रंगों अम्ल, क्षार के प्रति उनका प्रभाव। क्योंकि रेशे से धागा बनाने तथा फिर धागे से वस्त्र बनाने तथा बुने वस्त्र को पहनने योग्य बनाने के लिए जो परिसज्जाएँ की जाती हैं उन सबसें इन गुणों की आवश्यकता होती है—
भौतिक विशेषताएँ
(i). समसमानता (Uniformity ) – रेशे की लम्बाई व्यास में समानता होने पर सुन्दर आकर्षण वस्त्र तैयार होता है।
(A) लम्बाई (Length) – रेशे की लम्बाई वस्त्र की मजबूती में सहायक होती है। प्राकृतिक तन्तु लम्बाई के आधार पर दो प्रकार के होते हैं— (1) दीर्घाकार, (2) लघुआकार।
(1) दीर्घाकार (Filament)- ये वे रेशे हैं जो अविरल लम्बाई वाले होते हैं। इनकी लम्बाई अनिश्चित होती है। प्राकृतिक रेशों में रेशम1200-1800 फीट तक लम्बा रेशा है। कृत्रिम रेशों की लम्बाई में इच्छानुसार रखी जा सकती है यह दीर्घाकार रेशे भी दो प्रकार के होते हैं— एकरेशीय (Modifilament) तथा बहुरेशीय (Multifiament) । इन तन्तुओं की विशेषता है कि यह चिकने तथा लहरदार होते हैं।
( 2 ) लघुआकार (Stapic ) – रेशम दीर्घाकार रेशा है तो अन्य सभी प्राकृतिक तन्तु लघुआकार होते हैं इनकी लम्बाई ½” से 18 तक होती है। कृत्रिम रेशे दीर्घाकार होते हैं। आवश्यकतानुसार उन्हें छोटा भी किया जा सकता है।
(3) तीसरे प्रकार के रेशों को रस्सी (FIlament Tow) कहते हैं। यह कृत्रिम रेशों को मिलाकर ढीली रस्सी के रूप में उन्हें ऐंठन दी जाती है।
( 4 ) तन्तु की मोटाई- तन्तु की मोटाई अर्थात् तन्तुओं का व्यास वस्त्र विज्ञान में तन्तु का व्यास नापने की इकाई माइक्रान में नापी जाती है।
1 माइक्रान = 1/1000 M.M.
कृत्रिम रेशों का व्यास क्या होगा यह स्पिनरेटरस पर निर्भर करता है। स्पिनरेटरस का छेदों का व्यास ही कृत्रिम रेशों का व्यास होगा। कृत्रिम रेशों का व्यास नापने की इकाई डेनियर (Denier) है। डेनियर का निर्धारण 9,000 मीटर लम्बे धागे के वजन से किया जाता है। धागे के डेनियर (व्यास) को धागे के रेशों से भाग देकर रेशा का डेनियर निकाला जाता है।
(ii) मजबूती (Strength) – रेशे की मजबूती उसकी लम्बाई तथा आकार पर निर्भर करती है। मजबूत रेशों से बने धागे तथा वस्त्र मजबूत होते हैं। लम्बे रेशों से वस्त्र मजबूत बनते हैं। उसी प्रकार वस्त्र निर्माण हेतु 1-7 डेनियर के रेशे उत्तम माने जाते हैं। इससे अधिक डेनियर का आकार होने पर धागा मोटा होता है।
(iii) परस्पर जुड़ने की क्षमता (Cohensiveness)- तन्तुओं में आपस में जुड़ने की क्षमता है या नहीं इसके लिये रेशे क्रीम्प (Crimp) के बारे में जानना आवश्यक है क्योंकि जिन रेशों में आपस में जुड़ने की क्षमता होती है वह मजबूत होते हैं। कपास लिनन में यह क्षमता काफी अधिक होती है। क्रीप का अर्थ ही होता है आपस में जुड़ने की क्षमता। यह रेशों की लम्बाई, ऐंठन उनके घुँघरालेपन पर निर्भर करता है।
(iv) अवशोषकता (Absorbency )- रेशों में अवशोषकता भी क्रीम्प (Crimp) के कारण होती है। रेशों में क्रीम्प होती है या उत्पन्न की जाती है। इस क्रीम्प से अवशोषकता बढ़ती है जिससे रेशों से बने वस्त्रों की रंगाई, छपाई, धुलाई आसान हो जाती है। शरीर का पसीना सोखकर शरीर को ठण्डक देते हैं। कुछ रेशों में-(1) स्वाभाविक प्राकृतिक क्रीम्प होती है, जैसे- कपास तथा ऊन।
(2) कुछ रेशों में मशीनीकरण द्वारा क्रीम्प उत्पन्न की जाती है। अर्थात् उन रेशों को मशीन (रोलर) से निकालकर एक ओर चपटा किया जाता है। तीसरी क्रीम्प कृत्रिम रेशों में होती है जो दिखाई नहीं देती है यह अविकसित होती है, ऊष्मा की क्रिया से इसे विकसित किया जाता है।
(v) रेशे की बनावट (Textile ) – कोई रेशा अपनी सूखी अवस्था में हवा में से कितनी आर्द्रता सोखता है यह उसकी अवशोषकता होती है। क्रीम्प के कारण रेशों की अवशोषकता में वृद्धि होती है जिससे वह शरीर को आराम देती है। अवशोषकता गुण वाले रेशों में जल सोखने के साथ-साथ रंगों के प्रति भी सादृश्यता होती है। जिन रेशों में अवशोषकता गुण की कमी होती है वह त्वचा को आराम नहीं पहुँचाता क्योंकि पसीने का वाष्पीकरण नहीं हो पाता है इन पर रंग भी आसानी से नहीं चढ़ता है।
(vi) चमक – रेशों में चमक इस पर निर्भर करती है कि उसकी सतह से प्रकाश कितनी मात्रा में परिवर्तित होती है रेशा जितना चिकना लम्बा, चपटा, होगा चमक अधिक होगी यह चमक इन रेशों से बने वस्त्रों को आकर्षक बनाती है। प्राकृतिक रेशों में रेशम तथा कृत्रिम रेशों में चमक पाई जाती है।
(vii) प्रत्यास्थता (Elasticity ) – अर्थात दबाव रहने के बाद पुनः अपनी स्थिति में आ जाने की क्षमता यदि यह गुण रेशे में होता है तो उस रेशे से बने वस्त्र में भी होता है। यह गुण रेशों के परमाणु रंचना पर निर्भर करता है। इस विशेषता के कारण रेशे तथा वस्त्र में मजबूती आ जाती है तथा इन रेशों से बने वस्त्रों में सिलवटें नहीं पड़ती हैं। कृत्रिम रेशों में प्रत्यास्थता अधिक होती है, इसलिये उन पर सिलवटें नहीं पड़ती हैं। प्राकृतिक रेशों में सबसे अधिक प्रत्यास्थता ऊन के रेशे 99% होती है, रेशम में 92 सूती में 75% तथा लिनन में 63% तक प्रत्यास्थता होती है।
(viii) घर्षण का प्रभाव- यदि रेशों में घर्षण के प्रति प्रतिरोधात्मक क्षमता नहीं होती है तो उन रेशों से बने वस्त्र शीघ्र खराब हो जाते हैं इन वस्त्रों के रख-रखाव में विशेष ध्यान रखना पड़ता है। यह विशेषता रेशे के बाह्य भाग जिसे त्वचा कहते हैं उस पर निर्भर करती है। घर्षण प्रतिरोधकत्ता होने पर उस रेशे से बने वस्त्र मजबूत होते हैं उन्हें आसानी से किसी भी विधि से साफ किया जा सकता है उनका रख-रखाव आसान हो जाता है। यह विशेषता नायलॉन में सबसे अधिक होती है लिनन, कपास, पॉलिस्टर में भी उत्तम होती है। रेयान Glass Fiber में कम होती है।
(ix) ताप संवाहकता ( Heat Conductivity)- इस विशेषता वाले रेशों से बने वस्त्र जल्दी खराब नहीं होते हैं। यह ताप तथा सूर्य के प्रकाश से भी नष्ट नहीं होते हैं। इन गुणों वाले वस्त्रों का रख-रखाव आसान होता है। यह विशेषता रेशों में उनके रासायनिक संगठन से आती है।
रासायनिक विशेषताएँ
I. अम्ल का प्रभाव- (Effect of Acid )- अलग-अलग अम्ल का अलग-अलग रेशों पर प्रभाव- अलग-अलग प्रकार से होता है।
कपास का रेशा– अम्ल का प्रभाव हानिकारक होता है।
(1) खनिज अम्ल का हल्का घोल भी कपास को सुखाकर पाउडर में बदल देता है।
(2) गन्धक का अम्ल (सल्फ्यूरिक एसिड) का कपास पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। कपास के रेशे झुलसकर उसमें घुल जाते हैं, हल्के घोल का प्रभाव रेशों में सिकुड़न ले आता है। कार्बनिक अम्ल (एसिटिक एसिड) का हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है। लिनन पर भी अम्ल की प्रतिक्रिया कपास के समान ही होती है।
रेशम का रेशा – खनिज अम्लके हल्के घोलका हानिकारक प्रभाव नहीं होता किन्तु तीव्र घोल हानिकारक होता है इसी प्रकार कार्बनिक अम्ल भी रेशम को अधिक नुकसान नहीं पहुँचाते
ऊनी रेशा – कार्बनिक अम्ल ऊनी रेशों कोफुला देते हैं जिससे वे खराब हो जाते हैं। खनिज लवण वाले अम्ल के तीव्र घोल में ऊनी रेशे घुल जाते हैं। किन्तु खनिज लवण वाले अम्ल के हल्के घोल में ऊनी रेशे फूल जाते हैं पर उन्हें कोई नुकसान नहीं होता है।
कृत्रिम रेशों में नायलॉन खनिज अम्ल के हल्के घोल से भी नष्ट हो जाता है जबकि हाइड्रोक्लोरिक तथा सल्फयूरिक के तीव्र घोल से नष्ट होता है।
II. क्षार का प्रभाव ( Effect of Alkali) – कपास के रेशों पर इसका हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है क्षार की क्रिया कराते समय ऑक्सीजन की क्रिया नहीं होनी चाहिये। लिनन है में भी क्षार के प्रति प्रतिरोधक क्षमता होती है। रेशम के रेशे पर क्षार के हल्के घोल बुरा प्रभाव नहीं डालते किन्तु रेशे पीले तथा धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगते हैं। ऐसीटेट विधि से बना रेशम क्षार के प्रभाव को सह नहीं पाता अन्य विधि से बने रेयान पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है।
III. ब्लीच का प्रभाव ( Effect of Bleach )- ब्लीच प्रतिक्रमण दो प्रकार के होते हैं।
ऑक्सीकारक प्रतिकर्मक (Oxidising Agent) का हल्का घोल रेशों को नुकसान नहीं पहुँचाता किन्तु इनके तीव्र घोल सामान्य तापक्रम से अधिक तापक्रम पर प्रयोग करने से नुकसान पहुँचाते हैं।
अवकारक प्रतिकर्मक ( Reducing Reagent) — इनका वनस्पति रेशों तथा संश्लेषित रेशों पर हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है। ऊनी रेशे पर नुकसान करते हैं।
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