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खैर (Black Catechu) के फायदे एंव औषधीय गुण

खैर (Black Catechu) के फायदे एंव औषधीय गुण
खैर (Black Catechu) के फायदे एंव औषधीय गुण

खैर (Black Catechu)

प्रचलित नाम – खैर, खदिर ।

उपयोगी अंग- खदिर सार, त्वक् ।

परिचय – यह मध्यम कद का कंटकीय पेड़ है। इसके पर्णवृंत के नीचे एक जोड़ी कोटों की, पत्ते संयुक्त, पुष्प सफेद या हल्के पीले, जो मंजरियों में रहते हैं।

स्वाद – कडुवे ।

रासायनिक संगठन- इसके भीतर की काष्ठ (लकड़ी) में कैटेचुटैनिक अम्ल पाए जाते हैं। इस कैटेचुटेनिक अम्ल में 50 प्रतिशत टैनिन पदार्थ रहता है।

उपयोगिता एवं औषधीय गुण

चर्मरोगों, दंत विकारों (कंठदोष) में तिल के तेल में कत्था व्रण, पाण्डुरोग, कुष्ठरोग, श्वसनी शोथ, कण्डुरोग, अतिसार और प्रमेह में लाभदायक।

खैर अधिक प्रचलित, दैनिक जीवन में उपयोगी औषधि है। इसे पान में चूने के साथ मिलाकर खाने का चलन सदियों से चला आ रहा है।

कुष्ठ रोग में – कत्थे से स्नानादि कराते हैं तथा खिलाते हैं। कत्था-संग्रहणी, अतिसार तथा खट्टी डकार में लाभदायक है। मसूढ़ों को दृढ़ता प्रदान करता है। इसके पंचांग को पानी में उबालकर इस जल से स्नान करने से या रोगग्रस्त भाग को इस पानी से धोना चाहिए।

शिवत्र रोगों में खदिर की छाल तथा इसका समान मात्रा में आँवला मिलाकर अच्छी प्रकार उबालकर, इसका सेवन प्रातः-सायं इसमें एक-एक चम्मच आँवले का चूर्ण मिलाकर करना चाहिए।

व्रण में खदिर को पानी में उबालकर इस जल से व्रण को साफ करना चाहिए एवं इस पानी में दो-दो ग्राम त्रिफला मिलाकर प्रातः सायं पिलाना चाहिए। रक्तपिक्त (मुख, नासिका, गुदा, मूत्र मार्ग द्वारा रक्तस्राव होता हो) में खदिर के फूलों का चूर्ण लें। रक्तस्राव में कत्थे का कुल्ला करने से फायदा होता है।

खाँसी (कास) में रात के समय वात के कारण होने वाली सूखी खाँसी में, दही के एक कप जल में दो ग्राम खदिर सार डालकर प्रातः एवं सायं पिलाना चाहिए। खदिर के अन्तः छाल का चार भाग, बहेड़ा की छाल दो भाग तथा लौंग एक भाग-इन सबका चूर्ण बनाकर दिन में तीन बार एक-एक ग्राम, शहद के साथ चाटने से शुष्क कास में लाभ मिलता है। यह अपनी ठण्डी तासीर के कारण बलगम को ठीक कर निकालने में लाभदायक है।

स्वर-भेद (कंठदोष) में तिल के तेल में कत्था मिलाकर इसमें छोटा-सा साफ कपड़ा भिगोकर मुख में रखने से गला खुल जाता है।

चर्मरोग (श्वित्र, खाज, खुजली एवं कुष्ठरोग) में इसके पंचांग का क्वाथ बनाकर रोजाना प्रातः- सायं दो-दो चम्मच मधु मिलाकर सेवन करना चाहिए। इससे रक्तदोष मिट जाता है तथा चर्मरोग में शीघ्र आराम होता है। अतिसार में छाछ में पाँच ग्राम कत्था चूर्ण घोलकर पिलाने से इसमें काफी लाभ होता है। यह एक असरकारी उपचार है। भगंदर में खदिर की छाल तथा त्रिफला का काढ़ा बनाकर, इसमें भैंस का घी तथा वायविडंग का चूर्ण मिलाकर पिलाना चाहिए। वातरक्त में खदिर के मूल के चूर्ण में आँवले का रस मिलाकर पिलाना चाहिए।

मात्रा – त्वक् चूर्ण-1-3 ग्राम,

क्वाथ – 50-100 मि.ली. ।

खदिरसार- 1/2 से 1 ग्राम ।

कुष्ठरोग, रतौंधी के उपचार में इसके मूल की छाल का चूर्ण सर्वोत्तम है। कुष्ठरोग के छालों पर प्रयोग प्लास्टर के रूप में लाभदायक है। कुष्ठरोग में – इसकी छाल पीसकर कुष्ठरोग के छालों पर लेप करना चाहिए। कफज विसर्प – में खदिर के फूलों के चूर्ण में घृत का थोड़ा-सा मोयन देकर जल में पीसकर लेप करना चाहिए। सांस के रोग में- शिरीष के ताजे पुष्पों का स्वरस पिप्पली एवं मधु के साथ पिलाना चाहिए। सांप के विष में- श्वेत मरिच के चूर्ण में शिरीष पुष्प रस की सात दिन तक भावना देकर, शुष्क चूर्ण बनाकर इस चूर्ण का नस्य सेवन एवं अंजन करने से सर्प विष समाप्त होता है। विषन्ध वनस्पतियों में इसे श्रेष्ठ बताया गया है। अर्धाव भेदक में- इसके मूल तथा फली का स्वरस नासिका में एक-दो बूंद टपकानी चाहिए। कृमिनाश के लिए- खदिर के कोमल पत्तों के साथ टहनियों का रस एवं अपामार्ग के पंचांग का रस शहद के साथ पिलाना चाहिए।

नवीन नेत्राभिष्यंद में – खदिर के पत्तों का स्वरस में मधु मिलाकर नेत्रों में अंजन करना चाहिए। इसके काण्ड के भीतर से निकाली हुई कोमल त्वचा प्राप्त होती है, इस त्वचा के पके अंग से मवाद निकालकर साफ वस्त्र से पोंछकर घाव पर खदिर चूर्ण छिड़ककर पट्टी बांधनी चाहिए। पट्टी हर दिन बदलें। कुछ दिनों में घाव भर जाता है। इसका चूर्ण बना लेना चाहिए। यदि किसी को कोई चोट लगी हो, सिर फूट गया हो, कोई अंग कट गया हो या रक्तस्राव हो रहा हो, तो इस चूर्ण को उस स्थान में भरकर दबा देने से रक्तस्राव शीघ्र ही बंद हो जाता है तथा एक पट्टी में क्षत का रोपण हो जाता है। गण्डशोथ में – इसके पत्तों को पीसकर कल्क बना गर्म करके बांधना चाहिए, इसका प्रयोग हर दो-दो घंटे पश्चात् करने से गण्ड को अंदर से पकाकर बाहर खींच लाता है। इसके (शिरीष) बीजों का तेल रक्तातिसार में उपयोगी होता है। कण्ठमाल की गांठों में- इसके बीज के चूर्ण का सेवन करना चाहिए और इन बीजों को जल में पीसकर बाहर लेप करना चाहिए।

मात्रा- छाल तथा बीज का चूर्ण-3 से 6 ग्राम । छाल का क्वाथ – 50 से 100 मि.ली। स्वरस-10 से 20 मि.ली. ।

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