आस (Myrtus Commnuis)
प्रचलित नाम- मुराद, विलायती, मेंहदी।
उपयोगी अंग- पंचांग ।
उपलब्ध स्थान एवं विवरण – यह औषधि मध्यप्रदेश से उत्तर-पश्चिम हिमालय तक पैदा होती है। भारतवर्ष के बगीचों में भी यह बोई जाती है।
परिचय- इसके बागी तथा जंगली, दो भेद होते हैं। बागी का पेड़ अनार के वृक्ष की तरह और पत्ते अनार के पत्तों से कुछ छोटे होते हैं, स्वाद में कुछ मीठे रहते हैं। इसके फूल सफेद, सुगन्धित, स्वाद में किंचित तीखे और फीके होते हैं। इसके फल काले और बीज सफेद होते हैं। जंगली आस का पेड़, बागी आस से कुछ छोटा होता है। इसका फल पकने पर लाल रंग का और पत्ते पीले होते हैं, जिसको बुंखआस कहा जाता है। यह उसके दूसरे सब अंगों से ज्यादा प्रभावशाली होता है।
उपयोगिता एवं औषधीय गुण
इसमें परस्पर विरुद्ध गुणों का समावेश रहता है। इस एक ही औषधि में शीतल और गरम, संकोचक और उत्तेजक इत्यादि अनेक विरुद्ध गुणों का मिश्रण पाया जाता है। प्रथम गुण इसके पत्तों में हैं और दूसरे गुण इसके फलों में पाये जाते हैं। इसकी प्रधान क्रिया फुफ्फुस तथा मूत्रेन्द्रिय पर होती है। यह कफनाशक और मूत्रल होता है; इसलिये पुरानी खांसी और सुजाक में इसका प्रयोग होता है।
आस प्रथम दर्जे में रुक्ष है । यह अतिसार और प्रवाहिका रोग में लाभ पहुंचाता है। इसके ज्यादा सूंघने से खराब स्वप्न दीखने का रोग हो जाता है। आंतों को भी यह हानि पहुंचाता है, इसका फल गर्मी की खांसी में फायदा पहुंचाता है। दस्तों को बन्द कर देता है।
यह मूत्र निस्सारक है, पथरी को तोड़ता है, हृदय को शक्ति देता है, पेचिश में लाभदायक है, रक्तस्राव को बन्द कर देता है।
1. पंचांग की धूनी से अर्श रोग में फायदा होता है
2. इसके पत्तों का सेवन करने से अंडकोष वृद्धि में फायदा होता है।
3. इसके पत्तों के काढ़े से धार देकर धोने पर संधिवात में फायदा होता है।
4. इसके पत्तों को शराब में उबालकर लेप करने से मुश्किल सिरदर्द में भी फायदा होता है।
5. इसके पत्तों का रस पीने से अतिसार, संग्रहणी तथा बवासीर में फायदा होता है।
6. इसके सूखे पत्तों के चूर्ण से मंजन करने से दांतों की जड़ें मजबूत हो जाती हैं।
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