कीड़ामारी (ARISTOLOCHHA BACTIATA)
प्रचलित नाम- कीड़ामारी, किदमारी, गन्दन, गन्दाति ।
उपलब्ध स्थान- यह वर्षाजीवी क्षुद्र वनस्पति खासकर गुजरात तथा काठियावाड़ की काली जमीनों में उत्पन्न होती है।
परिचय- छोटी स्थिति में यह भूमि पर खड़ी रहती है, मगर बड़ी होने पर लता की तरह जमीन पर फैल जाती है। इसके पत्ते नरम, धुएं के रंग के तथा हृदय की शक्ल के होते हैं। इसके फूल लम्बे, जामुनी रंग के होते हैं। इसके फल लम्बे, गोल, बीज काले तथा चपटे होते हैं।
गुण एवं मात्रा- आयुर्वेदिक मत से यह वनस्पति कड़वी, विरेचक तथा कृमिनाशक होती है। यह वात और कफ में उपयोगी है। बुखार और जोड़ों के दर्द में लाभ पहुंचाती है। इसकी जड़, ताजी या सूखी रखी हुई, दोनों ही औषधीय गुण वाली होती है। उपरोक्त रोगों में जड़ को धोकर उबालकर, काढ़ा बनाकर सेवन कराएं। कृमियों को समाप्त करने और जख्म भरने में यह बड़ी प्रभावशाली होती है।
1. प्रसूति पीड़ा में इसकी जड़ के चूर्ण को 1 ड्राम की मात्रा में देने से आराम से प्रसव हो जाता है।
2. कष्टदायक मासिक धर्म में, स्त्रियों के पांडुरोग और कब्जियत में भी यह लाभदायक होता है।
3. विषम बुखार में कीड़ामारी को काली मिर्च के साथ खिलाने से व शराब में पीसकर शरीर पर मालिश करने से बड़ा फायदा होता है। विषम ज्वर में जब हाथ-पांवों में फूटन होती है, तब कीड़ामारी, कालीमिर्च, मालकाँगनी और समुद्रफल को समान मात्रा में लेकर शराब में पीसकर लेप करने से फायदा होता है।
संधियों की सूजन तथा आमवात में कीड़ामारी को सोंठ के साथ देना चाहिए और संधियों पर इसका लेप करना चाहिए। कीड़ामारी में रेचक गुण भी है; इसलिए जिस बुखार में दस्त लगते हों, उसमें इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
4. उदर शूल में इसके दो पत्ते अरंडी के तेल के साथ दिए जाते हैं। बालकों के उदर शूल में इसके पत्तों को पीसकर नाभि पर लेप किया जाता है। अजीर्ण व कब्जियत में भी यह काफी गुणकारी है।
5. दाद पर इसके पत्तों को अरंडी के तेल में पीसकर किया जा सकता है। जख्मों के कृमियों को समाप्त करने और घाव भरने के लिए इसका रस लगाया जाता है। उपदंश में इसके रस को दूध के साथ दिया जाता है। सुजाक में इसका रस अफीम के साथ देने से काफी फायदा होता है। विषैले जानवरों के विष को नष्ट करने के लिए इसका अन्दरूनी व बाहरी भाग प्रयोग किया जाता है।
6. इसके पिसे हुए पत्ते अरंडी के तेल के साथ मिलाकर बालकों की टाँगों पर होने वाली खुजली पर लगाने के उपयोग में लेते हैं
7. इसकी जड़ का काढ़ा इसके दस गुने जल में तैयार करके 1 से 2 जींस तक की मात्रा में गोल कीड़ों को समाप्त करने के लिये दिया जाता है। इसके पश्चात् अरंडी के तेल का जुलाब दे दिया जाता है। इससे सब कृमि निकल पड़ते हैं।
8. आधी औंस सूखी कीड़ामारी का काढ़ा, 10 औंस पानी में तैयार करें। यह काढ़ा 1 से 2 आँस तक की मात्रा में कृमिनाश करने तथा ऋतुस्राव को नियमित करने के लिए दिया जाता है। इसकी सूखी जड़ को 1 से 2 ग्राम तक की मात्रा में देने से गर्भाशय की सिकुड़न बढ़ जाती है।
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