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वस्तु तंतु से आप क्या समझती है? वस्त्रोपयोगी तन्तुओं का वर्गीकरण

वस्तु तंतु से आप क्या समझती है? वस्त्रोपयोगी तन्तुओं का वर्गीकरण
वस्तु तंतु से आप क्या समझती है? वस्त्रोपयोगी तन्तुओं का वर्गीकरण

वस्तु तंतु से आप क्या समझती है? वस्त्रोपयोगी तन्तुओं का वर्गीकरण विस्तार से कीजिए। अथवा वस्तोपयोगी तन्तुओं के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिये। तन्तु ‘से आप क्या समझती है? वस्त्रोपयोगी रेसो के वर्गीकरण को संक्षेप में समझाइये।

रेशे या तन्तु वस्त्र निर्माण की मूलभूत इकाई है। इनके बिना वस्त्र निर्माण करना सम्भव नहीं है। प्रकृति में अनेक प्रकार के तन्तु या रेशे विद्यमान है लेकिन सभी रेशों से वस्त्र निर्माण का कार्य सम्भव नहीं है क्योंकि सभी रेशों में वे सम्पूर्ण गुण उपस्थित नहीं होते है जो वस्त्र निर्माण के लिये आवश्यक है। इस प्रकार वस्त्र तन्तु वस्त्र निर्माण प्रक्रिया का आधार है।

परिभाषा – “वस्त्र तंतु वह मूलभूत सूक्ष्म इकाई है, जिसमें वस्त्र निर्माण हेतु आवश्यक गुण होते है और जिसे वस्त्र निर्माण में कच्ची सामग्री के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।”

तन्तुओं का वर्गीकरण – तन्तुओं के प्राप्ति स्रोत के आधार पर इन्हें दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं। कुछ रेशे ऐसे हैं जिनका मूल प्राप्ति स्रोत प्रकृति है जबकि कुछ तन्तु कृत्रिम विधि से प्राप्त किये जाते हैं।

(क) प्राकृतिक रेशे

प्राकृतिक रेशों के अन्तर्गत वे सभी रेशे आते हैं, जो प्रकृति में किसी न किसी वस्तु से प्राप्त होते हैं। पेड़-पौधों से भी रेशे मिलते हैं। पशुओं तथा नन्हें कीड़ों से वानस्पतिक एवं प्राणिज रेशों के अतिरिक्त कुछ रेशे खनिज से भी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार प्राकृतिक रेशों के मुख्यतः तीन प्रकार होते हैं-

1. वानस्पतिक रेशे

(1) कपास- यह रेशा कपास के पौधे से प्राप्त होता है। कपास का पौधा तीन फुट से लेकर चार फुट तक ऊँचा होता है। इसमें पहले फूल निकलते हैं। जब ये झड़ जाते हैं, तब कपास के कोये बढ़ना आरम्भ होते हैं।

कपास पौधों के बीच के चारों ओर रेशे के रूप में लिपटी रहती है। इसको बीज का बाल भी कहते हैं, क्योंकि यह एक ऐसा रेशा होता है, जो पौधे के बीज का चारों ओर से घेर लेता है। जलवायु, भूमि के उपजाऊपन आदि के प्रभाव से कपास के रेशे लम्बाई, प्रकार तथा विशेषताओं में भिन्न प्रकार के होते हैं।

कपास का रेशा अन्य समस्त रेशों से छोटा होता है। इसकी लम्बाई 2 सेमी से लेकर 2.3 सेमी. तक होती है जिस रुई में रेशा छोटा होता है उसको छोटा तन्तुक तथा लम्बे रेशे वाले को लम्बा तन्तुक कहते हैं। लम्बे रेशे वाला तन्तु अधिक मूल्यवान होता है, क्योंकि इसका प्रयोग अच्छे प्रकार के वस्त्र निर्माण हेतु किया जाता है। इस रेशे की कताई करना सरल होता है। इसके बने हुए धागे चिकने तथा मजबूत होते हैं।

( 2 ) लिनन – यह रेशा सन (Flax) के पौधे के तने से प्राप्त किया जाता है। सन उन सभी प्रदेशों में उत्पन्न होता है, जहाँ की जलवायु शीतोष्ण होती है और जिसमें पर्याप्त नमी पायी जाती है। रूस के बाल्टिक प्रान्त में तथा जर्मनी, फ्रांस, हॉलैण्ड, उत्तरी आयरलैण्ड, मध्य • एशिया और अमरीका के कुछ भागों में सन् के पौधे बहुतायत से उत्पन्न होते हैं।

जब जड़ के पास पौधे का रंग पीला पड़ जाता है और बीज हरे रंग से पीले, भूरे रंग में बदल जाते हैं, तब पौधे को जड़ सहित उखाड़ लिया जाता है। पौधे को जड़ सहित उखाड़ने से लम्बे तथा बिना टूटे हुए रेशे प्राप्त होते हैं। इसलिए यह स्टेपल (Staple) रेशों के वर्ग में आता है।

ये रेशे पौधे की ऊपरी छाल या परत के नीचे तने के रूप में लिपटे रहते हैं। ये रेशे पेक्टिन (Pactin), मोम तथा गोंद आदी पदार्थों से एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। इन रेशों को तने से निकालने के लिए विशेष प्रक्रिया प्रयोग में लायी जाती है।

(3) कापोक- यह भी एक प्रकार के वृक्ष के फल के रूप में पाया जाता है। इसके वृक्ष भारत तथा वेस्टइण्डीज में पाये जाते हैं। इसके बीज के चारों ओर रेशा कपास के समान ही लिपटा होता हैं। इसका रेशा कपास के रेशे से उत्तम तथा रेशम के अनुरूप होता है। यह कताई के लिए उपयुक्त नहीं होता है, क्योंकि इसमें प्राकृतिक ऐंठन नहीं होती। इसका रेशा कपास के समान नहीं निकाला जा सकता, किन्तु यह जीवन सुरक्षा पेटी चटाई आदि के लिए अधिक उपयोगी होता है।

(4) जूट- कपास के उपरान्त जूट ही ऐसा तन्तु है, जिसका सर्वाधिक प्रयोग वस्त्र निर्माण के क्षेत्र में किया जाता है। इस पौधे का नाम भारतीय शब्द ‘टाट’ से लिया गया है, जिसका तात्पर्य उलझा हुआ होता है। सम्भवतः इसका संकेत रेशे के असमान रेशों से है, जो एक-दूसरे से शीघ्रता से मिश्रित हो जाते हैं।

जूट का पौधा पाँच फुट से लेकर बारह फुट तक ऊँचा होता है। इसका तना मनुष्य की अँगुली के बराबर मोटा तथा बेलनाकार होता है। इसके ऊपरी सिरे के अतिरिक्त इसमें कोई ढाल नहीं होती।

जब इसके पोधे के फूल मुरझाने लगते हैं, तो इसकी फसल काटने के योग्य हो जाती है। यदि इससे पहले पौधे को काट लिया गया, तो तन्तु कमजोर रह जायेगा

तन्तु कोषों के समूह से निर्मित होता है, जिसकी सीमाएँ बहुभुज से स्पष्ट रूप में बँटी होती हैं। उत्तम श्रेणी का जूट पीले रंग का होता है तथा इसकी चमक रेशम के समान होती है। यह छूने में चिकना तथा कोमल होता है।

( 5 ) सन – सन के रेशे सन के पौधे से प्राप्त होते हैं। पौधे में फूल आने के पश्चात् इन्हें काटकर गलने के लिए छोड़ दिया जाता है व जूट के पौधे के समान ही गलकर इनके तने से रेशे प्राप्त किये जाते हैं। इसके रेशे चमकदार, मजबूत एवं टिकाऊ होते हैं, परन्तु मोटे, रुक्ष एवं खुरदरे होते हैं। इनका तनाव सामर्थ्य भी अधिक होता है। रेशे हल्के रंग के होते हैं इसलिए इन्हें गहरे व चमकदार रंगों में रँगा जाता है। इसके रेशे से वस्त्र नहीं बनाये जा सकते हैं, क्योंकि इनमें वस्त्रोपयोगी अनिवार्य गुणों का सख्त अभाव होता है, परन्तु गलीचे, कालीन, पावदान एवं सूतली तैयार किये जाते हैं। कागज उद्योग व मछली के जाल बनाने में इसके रेशे का अत्यधिक उपयोग होता है।

उपर्युक्त के अलावा हेम्प, रेमी, कोपॉर एवं पिना आदि की वानस्पतिक रेशों के अन्तर्गत आते है।

2. जान्तव रेशे

ऊन तथा रेशम जीवधारियों से प्राप्त किये जाते हैं। अतः उन्हें जान्तव तन्तु के नाम से पुकारते हैं।

(1) ऊन- ऊन भेड़ के बालों से प्राप्त किया जाता है। यह ऊँट; खरगोश, बकरी, घोड़े तथा अन्य प्रकार के जानवरों के बालों से प्राप्त रेशों से भी प्राप्त होता है।

मेरीनो जाति की भेड़ से सर्वश्रेष्ठ एवं उत्तम कोटि का ऊन प्राप्त किया जाता है। ऊन की श्रेणी व उत्तमता भेड़ की जाति, पोषण व शरीर के विभिन्न भागों से प्राप्त बाल पर निर्भर करता है।

( 2 ) रेशम – रेशम का रेशा अपनी अलौकिक सुन्दरता के लिए विश्व प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में महाराजाओं, महारानियों एवं सामंतों के वस्त्र रेशम के होते थे। रेशम के रेशे सुन्दर, चमकीले, कोमल, लम्बे, अतिसूक्ष्म, मुलायम एवं मजबूत होते हैं।

यह एक प्रकार के कीड़ों से प्राप्त किया जाता है, जिन्हें रेशम के कीड़ों के नाम से पुकारते हैं। इन कीड़ों में से एक द्रव पदार्थ निकलता रहता है, जो उनके शरीर के चारों ओर घेरे के रूप में संग्रहीत होता जाता है। यह हवा लगने के कारण सूखता जाता है तथा एक लम्बे सूत्र का रूप धारण कर लेता है।

3. खनिज रेशे- साधारणतया सोना, चाँदी तथ अन्य धातुओं के खिंचे हुए तार ही खनिज रेशों के रूप में प्रयोग होते हैं। अज्वलनशील तन्तुमय धातु ही प्राकृतिक खनिज रेशे हैं। इनका उपयोग आग बुझाने वालों की पोशाक, अज्वलनशील परदे आदि बनाने के काम में किया जाता है।

(ख) कृत्रिम रेशे– कृत्रिम रेशे दो प्रकार के होते है (1) मानव निर्मित, (2) रासायनिक

विधि द्वारा निर्मित रेशे-

1. मानव द्वारा निर्मित तन्तु

मानवकृत तन्तुओं के निर्माण हेतु लकड़ी या बाँस की लुग्दी व कपास को रासायनिक प्रक्रियाओं का प्रयोग करके घाल में परिवर्तित कर लिया जाता है तत्पश्चात् इस तैयार घोल को बारीक छिद्रों वाले स्पनेरेट से होकर गुजारा जाता है। फलस्वरूप बारीक, अविरल, चमकदार धागा प्राप्त होता है। इस धागे को कृत्रिम विधि द्वारा सूखा लिया जाता है। मानवकृत तन्तुओं को सम्मिलित व सामूहिक नाम रियॉन’ दिया गया है। रेथॉन का शाब्दिक अर्थ है- तल जो प्रकाश परावर्तित करे

रेयॉन कई प्रकार के होते हैं। इनके भौतिक व रासायनिक गुण भी भिन्न-भिन्न होते हैं। निम्न रेयॉन प्रमुख है-

( 14 ) नाइट्रोसेल्यूलोज रेयॉन- रेयॉन बनाने की यह सर्वाधिक प्राचीन विधि है। सन् 1884 ई० में प्रो० जार्ज एडमर्स ने इस विधि द्वारा रेयॉन का निर्माण किया था। इसमें कपास पर नाइटिक व गन्धक के अम्ल की अभिक्रिया करके उसका घोल तैयार कर लिया जाता है तत्पश्चात् इस गाढ़े घोल को पतला करने के लिए उसमें ईथर या ऐल्कोहॉल मिला दिया जाता है। तब इस घोल को स्पीनेरेट के छिद्रों से होकर गुजारा जाता है। ईथर या ऐल्कोहॉल भाप बनकर वाष्पित हो जाता है तथा घोल अविरल धागे के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार इन धागों को कृत्रिम विधि से सुखा लिया जाता है।

(b) विस्कोस रेयॉन– रेयॉन बनाने की इस विधि का आविष्कार वैज्ञानिक वेबर क्रास व मीडल ने सन् 1892 में किया। इसमें बाँस की लुग्दी पर कास्टिक सोडा की अभिक्रिया करके उसे क्षारीय सेल्यूलोज में परिवर्तित कर लेते हैं। 2-3 दिन पश्चात इसमें CS, (कार्बन डाइ-सल्फाइड) मिलाकर जैन्थेट सेल्यूलोज बना लेते हैं तत्पश्चात् इसे कास्टिक सोडा के पतले घोल में डालकर गाढ़ा होने देते हैं। इसी गाढ़े पदार्थ को विस्कोस कहते हैं। इस विस्कोस को जमने पर स्पीनेरेट के बारीक छिद्रों से होकर गुजार लिया जाता है। इस विधि से अत्यन्त कम व्यय में उत्तम प्रकार का रेयॉन धागा प्राप्त होता है। इससे सुन्दर वस्त्रों का निर्माण होता है।

यह विधि सस्ती है। वर्तमान समय में इसी विधि से मौजे, रूमाल, बनियान व अन्य वस्त्र बनाये जाते हैं।

(c) कुप्रामोनियम विधि- इस विधि द्वारा रेयॉन का आविष्कार फ्रांस के वैज्ञानिक एल.एच. देशपिजिस ने सन् 1890 ई. में किया था। इस विधि से अत्यन्त सुन्दर, महीन, कोमल, चमकदार एवं आकर्षक धागा तैयार होता है। फलतः सुन्दर एवं आकर्षक वस्त्रों का निर्माण होता है।

इस प्रकार उपर्युक्त तीनों विधियों से प्राप्त रेयॉन के गुणों एवं विशेषताओं में भिन्नता रहती है।

2. रासायनिक रेशे (ताप सुनम्य रेशे)

रासायनिक रेशों का निर्माण विभिन्न प्रकार के रासायनिक तत्वों को लेकर रासायनिक विधियों से होता है। पहले इनसे नायलॉन साल्ट बनता है, बाद में उसके फ्लेक बनाकर, पिघलाकर महीन छिद्रयुक्त नली में से निकाला जाता है, सूख जाने पर सुन्दर वस्त्रोपयोगी रेशे तैयार हो जाते हैं। इन्हें ताप सुनम्य रेशा भी कहते हैं।

रासायनिक रेशे के प्रमुख प्रकार निम्न है-

( 1 ) नायलॉन- यह पोलीमाइड से बनता है। इसका रेशा गोल, चिकना एवं अर्द्धपारदर्शी होता है। इसके आधार तथा इसकी लम्बाई को नियन्त्रित किया जा सकता है। लम्बाई बनाये जाने वाले वस्त्र के अनुरूप की जाती है।

नायलॉन का आविष्कार सर्वप्रथम सन् 1938 ई. में न्यूयार्क स्थित ड्यूपोण्ट कम्पनी के डॉ. कैराथर्स ने की थी। यह एक बहुलक रेशा है। यह पॉलीमाइड से बनता है। इसके रेशे अर्द्धपारदर्शी, चिकने, मजबूत, सूक्ष्म, कोमल एवं अत्यन्त ही लचीले होते हैं। माइक्रोस्कोप से देखने पर इसके रेशे गोल दिखाई देते हैं। रेशे की लम्बाई इच्छानुकूल रखी जा सकती है, साथ ही इसकी चमक पर भी नियंत्रण किया जा सकता है। कभी इससे छोटे तो कभी अविरल लम्बाई के रेशे बनाये जाते हैं। अतः रेशों की लम्बाई व चमक बनाये जाने वाले वस्त्रों के अनुरूप रखी जाती है। इससे घुँघराला अथवा सीधे रेशे भी बनाये जाते हैं।

( 2 ) डेक्रॉन- डेक्रान के रेशे पोलिस्टर से तैयार किये जाते हैं। रेशे सीधे, चिकने, गोल व चमकदार होते हैं। इसके रेशे भी नायलॉन के समान ही पिघलाकर तैयार किये जाते हैं। इनमें नमी अवशोषण क्षमता अत्यन्त ही कम होती है। फलतः ये आसानी से धोये एवं सुखाये जा सकते हैं। गर्मी में ये वस्त्र आरामदायक नहीं होते हैं व शरीर में अधिक गर्मी तथा खुजली पैदा करते हैं।

( 3 ) डायनेल- यह रेशा एक्रीलिक तथा विनायल क्लोराइड से बनता है। इस रेशे को छोटे-छोटे टुकड़े के रूप में बनाया जाता है। रेशा चिपटा तथा कुछ चिकना-सा होता है। इससे बना वस्त्र भी झुर्रीदार होता है।

(4) क्रेसलॉन- यह भी एक्रीलिक से बनता है। इसे भी छोटे-छोटे रेशों के टुकड़ों के रूप में बनाया जाता है। यह चमक वाला सीधा और चिकना रेशा होता है। इसकी सूक्ष्म रचना चित्तीदार होती है।

( 5 ) जेफरान– यह नाइट्रिल एक्रीलिक से बनता है। रेशा एकदम गोल होता है तथा इसके सिरे चिकने होते हैं।

( 6 ) डरवन यह डेनीट्राइल से बनता है। यह गोल किनारों वाला, कुछ-कुछ टेड़ी मेढ़ी सतह वाला होता है।

( 7 ) सारन – यह विनाइलडोन क्लोराइड से बनता है। यह रेशा चिकना, गोल, अर्द्ध पारदर्शी तथा चमकीला होता है।

( 8 ) वेरल – यह भी एक्रीलिक से निर्मित होता है। यह रेशा छोटे टुकड़ों के रूप में बनाया जाता है।

( 9 ) फाइबर ग्लास- शीशे से बनी फाइबर ग्लास का रेशा विज्ञान की अपूर्व देन है। यह गोल, चिकनी, चमकदार सतह वाला, अर्द्ध-पारदर्शी तथा चमकीला रेश है। आजकल इसका प्रयोग घरों में दिनों-दिन बढ़ रहा है। इससे बने वस्त्रों से परदे आदि बनते हैं। परिधान में भी इनका प्रयोग होता है। ये वस्त्र अत्यधिक टिकाऊ होते हैं। इन्हें विभिन्न आकार और आकृतियों में बनाया जा सकता है।

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